चोटी की पकड़–98

देर अनुचित है सोचकर प्रभाकर ने कहा, "बचना है तो हमारे साथ आइए।"


"यह तलवार ले लूँ।"

तलवार एक और है, समझकर प्रभाकर चौंका। कुछ समझ में न आया। कहा, "हमारी निगाह में अब तलवार का जमाना नहीं रहा। जिनकी तलवार होगी, वे ले लेंगे। यहाँ इस आदमी के अलावा और कोई था?"

"और कोई नहीं।"

"यह कहाँ से तुमको ले आया?"

"मुन्ना ने इसके साथ कर दिया था और बहुत से काम करने के लिए कहे थे।"

"किसके खिलाफ?"

"राजा के।"

"आदमी किनके?"

"राजा के।"

"तरफदारी किनकी?"

"रानी की।"

"अच्छा।" प्रभाकर मुस्कराया।

"आपको रहना मंजूर है या हमारे साथ चलना?"

"हम एक छन इस नरकपुरी में नहीं रहना चाहते।'

"हमारे साथ आइये।"

प्रभाकर बढ़ा। बुआ पीछे हो लीं। तालाब के किनारे बुआ को खड़ा किया। दो-एक सवाल और पूछे। समझ की निगाह उठाई और अपने जीने की ओर चला।

कोठी पर कमरे में गया। दो साथियों को बुलाया। कहा, "बाहर एक औरत है।

 ललित, उसको लेकर बेलपुर जाओ। हम दो-तीन दिन में आते हैं। महराजिन बताना। भेद न देना। बाहरवालों से मिलाना मत। काम किए-कराये जाना। इसको भी लगाए रहना। 

मामला रंग पकड़ रहा है। यहाँ से आजकल में बोरिया-बधना समेटना है। प्रकाश ताली लगाकर चले आएँगे। गढ़ की चारदीवार में बहुत से दरवाजे हैं। हमारे की ताली दूसरे के पास भी है या नहीं, सही-सही नहीं मालूम।"

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